हुमायूँ एक महान मुगल शासक थे। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर के पुत्र नसीरुद्दीन हुमायूँ (६ मार्च १५०८ – २२ फरवरी, १५५६) थे। यद्यपि उन के पास साम्राज्य बहुत साल तक नही रहा, पर मुग़ल साम्राज्य की नींव में हुमायूँ का योगदान है। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने १५३० में भारत की राजगद्दी संभाली और उनके सौतेले भाई कामरान मिर्ज़ा ने काबुल और लाहौर का शासन ले लिया। बाबर ने मरने से पहले ही इस तरह से राज्य को बाँटा ताकि आगे चल कर दोनों भाइयों में लड़ाई न हो। कामरान आगे जाकर हुमायूँ के कड़े प्रतिद्वंदी बने। हुमायूँ का शासन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के हिस्सों पर १५३०-१५४० और फिर १५५५-१५५६ तक रहा।
प्रारंभिक जीवन :
26 दिसम्बर, 1530 ई. को बाबर की मृत्यु के बाद 30 दिसम्बर, 1530 ई. को 23 वर्ष की आयु में हुमायूँ का राज्याभिषेक किया गया। बाबर ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही हुमायूँ को गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। हुमायूँ को उत्तराधिकार देने के साथ ही साथ बाबर ने विस्तृत साम्राज्य को अपने भाईयों में बाँटने का निर्देश भी दिया था, अतः उसने असकरी को सम्भल, हिन्दाल को मेवात तथा कामरान को पंजाब की सूबेदारी प्रदान की थी।
काबुल के चाहर बाग़ में हुमायूँ के जन्म का उत्सव मनाता बाबर. साम्राज्य का इस तरह से किया गया विभाजन हुमायूँ की भयंकर भूलों में से एक था, जिसके कारण उसे अनेक आन्तरिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कालान्तर में हुमायूँ के भाइयों ने उसका साथ नहीं दिया। वास्तव में अविवेकपूर्णढंग से किया गया साम्राज्य का यह विभाजन, कालान्तर में हुमायूँ के लिए घातक सिद्ध हुआ। यद्यपि उसके सबसे प्रबल शत्रु अफ़ग़ान थे।, किन्तु भाइयों का असहयोग और हुमायूँ की कुछ व्यैक्तिक कमज़ोरियाँ उसकी असफलता का कारण सिद्ध हुईं.
हुमायूँ दुसरे मुग़ल शासक थे जिन्होंने उस समय आज के अफगानिस्तान, पकिस्तान और उत्तरी भारत के कुछ भागो पर 1531-1540 तक और फिर दोबारा 1555-1556 तक शासन किया था. उनके पिता बाबर की ही तरह उन्होंने भी अपने साम्राज्य को जल्द ही खो दिया था लेकिन बाद में पर्शिया के सफविद राजवंशियो की सहायता से पुनः हासिल कर लिया था.
1556 में उनकी मृत्यु के समय, मुग़ल साम्राज्य तक़रीबन दस लाख किलोमीटर तक फैला हुआ था. हुमायूँ ने बाद में पश्तून से भी शेर शाह सूरी से हारकर अपने अधिकार को खो दिया था लेकिन बाद में पर्शियन की सहायता से उन्होंने उसे दोबारा हासिल कर लिया था. हुमायूँ ने अपने शासनकाल में मुग़ल दरबार में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भी किये थे.
प्रसिध्द इतिहासकार रसब्रुक विलियम्स के अनुसार – “मुगल शासक बाबर ने अपने पुत्र के लिए ऐसा साम्राज्य छोडा जो केवल युध्द की परिस्थितियों में ही संगठित रखा जा सकता था और शांति के समय के लिए निर्बल, रचना विहीन एवं आधार विहीन था. बाबर का वजीर मीर निजामुद्दीन खलीफा मुगल साम्राज्य का मेंहदी ख्वाजा (बाबर की बडी बहन का पति) को सौंपना चाहता था लेकिन बाद में वजीर ने हुमायुँ को ही शासन तंत्र चलाने को कहा
दौहरिया का युद्ध :
जौनपुर की ओर अग्रसर हुमायूँ की सेना एवं महमूद लोदी की सेना के बीच अगस्त, 1532 ई. में दौहारिया नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें महमूद की पराजय हुई। इस युद्ध मे अफ़ग़ान सेना का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था।
कन्नौज की लड़ाई :
कन्नौज के युद्ध में मुग़ल और अफगान सेना एक बार फिर से 1540 ईस्वी में एक दुसरे के सामने आ गयी. इस युद्ध में हुमायूँ की सेना निर्णायक तौर पर अफगान सेना से पराजित हो गयी. हुमायूँ ने भारत छोड़ दिया और निष्कासन भरे जीवन जीता रहा. इस तरह से वह अगले 15 वर्षो तक निष्कासन पूर्ण जीवन जीता रहा. उसने ईरान(पर्सिया) के शाह तःमास्प ए ऐदाब के दरबार में शरण लिया. वह अपने भाई असकरी से कंधार को जीतने में पूरी तरह से सक्षम था. उसने कामरान से 1547 ईस्वी में काबुल को विजित कर लिया.
चौसा की लड़ाई :
चौसा की लड़ाई चौसा की लड़ाई 1539 ईस्वी में हुमायूं के नेतृत्व में मुगल सेना और शेरशाह के नेतृत्व में अफगान सेना के मध्य लड़ा गया था. इस युद्ध में अफगान सेना के समक्ष मुग़ल सेना पूरी तरह से पराजित हो गयी थी. एक तरह से हुमायु भारत से निष्काषित कर दिया गया.
बहादुर शाह से युद्ध :
गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ई. में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के क़िले पर अधिकार कर लिया। 1534 ई. में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उसे संधि के लिए बाध्य किया। बहादुर शाह ने टर्की के कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की सहायता से एक बेहतर तोपखाने का निर्माण करवाया। दूसरी तरफ़ शेर ख़ाँ ने ‘सूरजगढ़ के राज’ मेंबंगाल को हराकर काफ़ी सम्मान अर्जित किया। उसकी बढ़ती हुई शक्ति हुमायूँ के लिए चिन्ता का विषय थी, पर हुमायूँ की पहली समस्या बहादुर शाह था। बहादुर शाह एवं हुमायूँ के मध्य 1535 ई. में ‘सारंगपुर’ में संघर्ष हुआ। बहादुर शाह पराजित होकर मांडू भाग गया।
इस तरह हुमायूँ द्वारा मांडू एवं चम्पानेर पर विजय के बाद मालवा एवं गुजरात उसके अधिकार में आ गए। इसके पश्चात् बहादुर शाह ने चित्तौड़ का घेरा डाला। चित्तौड़ के शासक विक्रमाजीत की मां कर्णवती ने इस अवसर पर हुमायूँ को राखी भेजकर उससे बहादुर शाह के विरुद्ध सहायता माँगी। हालाँकि बहादुर शाह के एक काफ़िर राज्य की सहायता न करने के निवेदन को हुमायूँ द्वारा स्वीकार कर लिया गया। एक वर्ष बाद बहादुर शाह ने पुर्तग़ालियों के सहयोग से पुनः 1536 ई. में गुजरात एवं मालवा पर अधिकार कर लिया, परन्तु फ़रवरी, 1537 ई. में बहादुर शाह की मृत्यु हो गई।
चौसा का युद्ध :
26 जून, 1539 ई. को हुमायूँ एवं शेर ख़ाँ की सेनाओं के मध्य गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित ‘चौसा’ नामक स्थान पर संघर्ष हुआ। यह युद्ध हुमायूँ अपनी कुछ ग़लतियों के कारण हार गया। संघर्ष में मुग़ल सेना की काफ़ी तबाही हुई। हुमायूँ ने युद्ध क्षेत्र से भागकर एक भिश्ती का सहारा लेकर किसी तरह गंगा नदी पार कर अपने जान बचाई। जिस भिश्ती ने चौसा के युद्ध में उसकी जान बचाई थी, उसे हुमायूँ ने एक दिन के लिए दिल्ली का बादशाह बना दिया था। चौसा के युद्ध में सफल होने के बाद शेर ख़ाँ ने अपने को ‘शेरशाह’ (राज्याभिषेक के समय) की उपाधि से सुसज्जित किया, साथ ही अपने नाम के खुतबे खुदवाये तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।
मकबरा :
दिल्ली की एतिहासिक इमारतों में से एक है हुमायूं का मकबरा। विस्तृत क्षेत्र में फैले इस परसिर में मुगल कालीन सभ्यता की झांकी देखने को मिलती है। इस इमारत की बनावट को देखने हमेशा पर्यटको की भीड़ लगी रहती है। 1556 में अचानक जब हुमायूं की मृत्यु हुई तो उनकी विधवा हाजी बेगम जिन्हे हमीदा बानू भी कहा जाता था ने 9 साल के बाद , सन् 1565 में इस मकबरे का निर्माण शुरू करवाया जो 1572 में पूरा हुआ। मुगल शैली का बेहतरीन उदाहरण है, जो इस्लामी वास्तुकला से प्रेरित था। कहते हैं हुमायूं ने अपने निर्वासन के दौरान फारसी स्थापत्य कला के सिद्धांतो का ज्ञान प्राप्त किया था और शायद स्वयं ही इस मकबरे की योजना बनाई थी।
हमीदा बानू ने इस मकबरे के लिए एक फारसी वास्तुकार, मिराक मिर्जा गियासबेग को नियुक्त किया था। यह मकबरा एक वर्गाकार उद्यान के केंद्र में है जिसके चारों कोनों पर चार बाग हैं। जिसके केंद्र में फव्वारे भी बने हैं। यमुना नदी के किनारे मकबरे के लिए इस स्थान का चुनाव इसकी हजरत निजामुद्दीन (दरगाह) से निकटता के कारण किया गया था। संत निजामुद्दीन दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं व इन्हें दिल्ली के शासकों द्वारा काफी माना गया है। इनका तत्कालीन आवास भी मकबरे के स्थान से निकट ही चिल्ला-निजामुद्दीन औलिया में स्थित था।
जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा.
क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.
मृत्यु :
1545 ईस्वी में शेरशाह की मृत्यु हुमायूं के लिए वरदान शाबित हुई. शेरशाह के उत्तराधिकारी इतने मजबूत और सक्षम नहीं थे कि शेरशाह के द्वारा बनाये गए शासन को संभल सकें. हुमायूँ 1555 ईस्वी में काबुल से दिल्ली की तरफ अभियान किया और अफगान शासक सिकंदर सूरी को पंजाब में पराजित किया. उसके बाद वह दिल्ली और आगरा की तरफ अपना रुख किया और आसानी से दोनों को हस्तगत कर लिया. यद्यपि वह सिर्फ 6 महीनों तक शासन कर सका और अपने महल की सीढियों से फिसल कर गिर पड़ा जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हो गयी.